स्वरचित कविता
पूरा वातावरण प्रदूषित,
भोजन, हवा, नाद या पानी।
कोई क्षेत्र नहीं छोड़ा,
जिस जगह न की हमने मनमानी।।
अब भूकंप अगर आए तो,
हम कुदरत को कोस रहे हैं।
और बाढ़ आए तो पावन
नदियों को दे दोष रहे हैं।।
इतना किया अनर्थ, न फिर भी,
कमी देखते अपने अंदर।
खेल रहे कुदरत से जैसे,
लिए उस्तरा बैठा बंदर।।
ओलावृष्टि और तूफानों,
से जो बर्बादी होती है।
जो कुदरत से छीना हमने,
उसका वो बदला लेती है।।
भूतकाल में आर्यावर्त के,
मौसम चार हुआ करते थे।
वर्षा, शरद, वसंत, ग्रीष्म ऋतु,
ये क्रमवार हुआ करते थे।।
आज कौन सी ऋतु कब आए,
कोई निश्चित ज्ञात नहीं है।
पूष माह में चलते पंखे,
सावन में बरसात नहीं है।।
फसल क्षेत्रफल घटता जाता,
आबादी बढ़ती दिन प्रतिदिन।
अल्प खाद्य उपलब्ध मनुज को,
तो अखाद्य खाते सोचे बिन।।
दुराग्रहण से दुराचरण, फिर
निश्चित मर्ज, व्याधि का होना।
प्लेग, तपेदिक, स्वाइन फ्लू,
पोलियो, कैंसर या कोरोना।।
सूखा, बाढ़, महामारी,
इन सबको दिया निमंत्रण हमने।
ज्वालामुखी और भूचालों,
से संतुलित किया कुदरत ने।।
चक्रवात या सूनामी सब,
मानव की करनी के फल हैं।
इसीलिए तो आज हम सभी,
कुदरत के आगे निर्बल हैं।।