स्वरचित कविता
रात कितनी भी अंधेरी हो पर,
भोर की हर किरण से हारी है।
जिंदगी के अमिट अंधेरों में,
रोशनी के कई ठिकाने हैं।।
जान पर खेल कर सजाए हैं,
जिंदगी में कई सपने हमने।
अब नहीं वापसी की राह कोई,
अब न रुकने के ही बहाने हैं।।
जाने क्या लिखा है विधाता ने,
मेरे हाथों की इन लकीरों में।
चाहे जो भी हो कर्मभूमि में,
जीत के सिलसिले बनाने है।।
हार को जीत न मिल पाए कभी,
जीत को हार से सजाते हैं।
ये ही दस्तूर हैं जमाने के,
ये ही हमको भी अब निभाने हैं।।
सिर्फ जीने को पेट की खातिर,
राह पाना कोई मुश्किल तो नहीं।
पर कई और का भी पेट भरे,
रास्ते इस तरह बनाने हैं।।
शौक पाले नहीं कोई हमने,
तो कोई दोस्त मिले भी कैसे।
इसलिए भीड़ में अकेले ही,
अपने सपनों की डोर थामे हैं।।
रब की रहमत से यहां तक पहुंचे,
साथ अपनों का भी मिल जाए तो।
भरम की भूल भुलैया से निकल,
कर्म के रास्ते बनाने हैं।।
काल के गाल में समाएंगे,
ये तो निश्चित है एक दिन के लिए।
पर उसी एक दिन के आने तक,
अपने अरमान सब सजाने हैं।।