स्वरचित कविता
मैं भटक जाऊं गर राहों में,
और मिल जाए मंजिल तुमको,
बढ़ते जाना केवल आगे,
निर्विघ्न, निरंतर, निराकार।
मत करना मेरा इंतज़ार।।
यदि देह बंधनों में जकड़े,
मन के चौराहे मध्य खड़े,
सोचकर कि अब तो आ पहुंचे,
तुम मुझको लेने पलट पड़े।
रह जाओगे खुद भी पीछे,
खोकर सारे उपलब्धि सार।
मत करना मेरा इंतज़ार।।
शायद मंजिल रूठ गई है,
या फिर पीछे छूट गई है,
भटक चुके हैं बहुत अभी तक,
फिर भी आशा नहीं गई है।
जब तक दम में दम बाकी है,
तब तक नहीं मानना हार।
मत करना मेरा इंतज़ार।।
आशाओं के तार जुड़े हैं,
दुर्गमता और हार जुड़े हैं,
फिर भी जिंदादिल,जीवट से,
संघर्षी संहार जुड़े हैं।
तब तक लड़ना है दुनियां से,
जब तक हो सपने साकार।
तब करना मेरा इंतज़ार।।
तब करना मेरा इंतज़ार।।