तेरे, मेरे-
मन के सोच से,
जो संबंध!
उपजे हैं,
वो न तो-
प्रतिबंध है,
न ही,कोई-
अनुबंध हैं।
ये, तो-
हम दोनों में,
छिपी हुई-
उन तमाम,
संवेदनाओं का,
आलंब है;
जो, हमें-
एक दुसरे को,
समझने का,
संबल देती है।
तभी तो-
यह हमारा साथ,
संयोग नहीं-
प्रारब्ध है।
© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर।
(चित्र: साभार)