उदासी भरी,
राहों में-
बंजारों सा,
कटता रहा दिवस।
रात योगिनी,
बनकर दुबकी,
विरहानल की-
ज्यों शाम से ढ़ली।
जीवन की-
तपती, दुपहरी में,
मन व्याकुल!
तन थका बेचारा,
पाकर-
तेरी जुल्फों की छाया,
देखो-
शीतल मंद बयार मिली,
और-
एक सुकून कीशाम हूई।
© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर।
(चित्र: साभार)