लोगों की-
उम्मीदों पर,
हरपल!
खरा उतरना,
मां,बहन,भाई,
पत्नी सहित-
पूरे पारिवारिक,
संबंधों को-
न्यायपूर्ण ढ़ंग से,
निभाना।
अपने खुद को,
पुत्र,पति तथा-
भाई के-
दायित्वों का वहन,
करते समय,
उनके-
जज्बातों के,
हिसाब से ढ़ाल लेना,
सबकी-
जरुरतें, पूरी करते हुए,
सबका दर्द!
महसूस करना,
और-
अपनी विवशता न दर्शाना,
यही होता है-
पुरुष का होना।
जो सदैव!
घोंटता रहता है गला-
अपनी खुशीयों का,
रिश्तों के-
जीवन की खातिर,
लोगों के-
पोछता रहा आंसू!
खुद आंसू, पी पी कर।
अंततः!
जब वह, टूट जाता-
आहत होकर,
समाज में,तब-
फूट फूटकर-
रो उठता है,
स्त्री की गोंद में,
सिर छिपाकर।
यह स्त्री!
उसकी-
मां,बहन,या-
पत्नी!
कोई भी,
हो सकती है।
इसीलिए-
आसान!
नहीं है-
एक पुरुष होना।
© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर।
(चित्र: साभार)