आज-
दिन भर,
अनायास ही नहीं,
जानबूझकर;
रह रहकर,
कुछ-
खोजती रहीं,
मेरी उंगलियां ,
फोन के-
स्क्रीन पर,
आभासी दुनिया में,
तेरे आभास के,
अहसास को।
तुम!
नहीं दिखी,
कहीं भी
मेरे दुखी पोस्ट में।
जबकि-
तुम!
हंसती खिलखिलाती,
नज़र आती रही,
अपने-
विभिन्न आयामों में।
इतना-
काफी था,
मेरे विचारों के,
टुटने के लिए।
क्योंकि-
मेरे और तेरे रास्ते,
अलग हो चुके,
अब शायद।
© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर।
(चित्र: साभार)