कब?
घुटनों से,
चलना छोड़कर,
पैरों से दौड़ना सीखा?
किशोर-
वय से होकर,
जवानी की दहलीज पर-
जज्बातों के संग करी अठखेलियां।
पढ़ाई!
फिर नौकरी,
और बेलौस विंदास-
जिंदगी में धन संचय चिंता से मुक्त।
शादी!
पत्नी की अपूर्ण,
जरुरतों के बीच बच्चों की-
उम्र के साथ लगातार बढ़ती जरुरतें।
व्यस्तता-
बढ़ते बढ़ते,
अपने ही मकड़जाल मे़,
फंसा हुआ उलझते चले गये।
मिला-
बहुत कुछ,
बहुत कुछ छूट गया,
कितना रह गया है, नहीं पता,
बाबु से,
मामा,पापा,नाना,
ससुर, सब बनने चले गये,
बेटा से चाचा,बाबा का यह सफर।
इसी बीच-
पिता,चाचा,भाई,
एक एक करके मेरा,
सब साथ छोड़कर चले गये।
बेटी!
छोड़कर मेरा आंगन,
खुशीयां हुई,दुसरे आंगन की,
मशगूल हुए बेटे-बहू, खुद में हद से बाहर।
अब-
चुभती हैं बातें,
बहू कहती सठीया गये,
बच्चे कहते नहीं पता, चुप रहिये।
चली-
सदा मुझपर,
हुकुम बड़े बूढ़ों की,
कब हुकुम दिया मैंने किसी को,
नहीं पता।
कब!
मेरी अठखेलियां,
बुढ़ापे के उदास राहों की,
पथिक बनकर चल पड़ीं अकेला।
बच्चे!
नाते, रिश्तेदारों के-
होंठों पर थिरकीं खुशीयां,
मेरे होंठों तक कब आयीं, नहीं पता।
मैं कब-
हंसा था कभी,
खुशीयों से कब झूमा?
इसपर ध्यान गया ही नहीं।
एक दिन-
दर्पण में खुद को देखा,
काले बाल,सफेद हो गये,
उभरे गालों पर झुर्रियां उग आयीं।
तब-
मन में,
बुढ़ा घुस आया,
और जीवन के उल्लास लौट गये।
ऐसे-
जीवन कब,
बच्चा से बुढ़े होकर,
गुजर गया,यह नहीं पता।
© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर।
(चित्र:साभार)