मैं-
अपनी संपूर्ण!
संवेदना को,
उड़ेलकर-
जो जो रचना,
भेंजता रहा,
उसे या तो तुम-
पढ़ी नहीं,
अगर-
कभी पढ़ी भी,
तब केवल-
लाईक का,
बटन भर-
दबाकर रह गयी।
तुमने-
यह जानने की,
कोशिश भी,
नहीं करी कि-
इन शब्दों को,
मैंने-
अपने अंदर की,
कितनी!
गहराईयों से,
खिंचकर-
तेरे संमुख!
निवेदित किया है।
तुम तो-
हवा का झोंका रही,
मेरे लिए,
और मैं!
उसके पीछे-
उड़ने वाला,
मात्र!
तिनका लगा तुम्हें।
© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर उप्र।