महावर!
लगे पांव,
चावल के दानों को,
उछाल कर,
जब-
विदा हुई घर से,
बेटी!
बहू का रुप धरे।
तब-
छोड़ गयी,
घर की-
दिवारों पर,
अपनी-
लिखी हुई नाम।
आलमारी!
उसमें-
तह की हुई,
तरह तरह की रुमालें,
करीने से रखीं,
किताबें!
दिवाल पर टंगी,
खुद की-
बनायी हुई,
पेंटिंग!
दिवाली के रंगोली की,
कृतियां!
आज सब,
गमगीन हैं।
नित नये-
खुबसूरत कपों,
चम्मचों,कांटों,और-
छुरीयों से सजी,
रसोई में,
अपनी यादों को,
संजोकर!
मजबूर हो, चली-
अपने-
आधे जीवन का,
घर छोड़!
अर्धांगिनी बन,
शेष!
आधे के लिये,
एक अनजाने-
हमसफ़र के साथ।
घर के-
कोने कोने में,
अपने!
स्पर्श की महक,
बचपन की-
निशानीयां छोड़,
जब-
लांघ गयी,दहलीज!
तब-
आंगन की,
पनीली आंखों से,
लुढ़क उठे,नेह के आंसू ।
कभी सूट-
तो, कभी टी शर्ट,
कभी-
मचलती हुई,साड़ी में,
उसके फोटो!
आज,उदास हैं एल्बम में।
उसकी-
पुरानी किताबें!
खूंटी पर-
पड़े दुपट्टे!
उसकी नसीहतें!
सब,औंधे मुंह पड़ी हैं।
क्योंकि-
बेटी!
विदा हो चली है,
बाबुल के घर से,
अपने-
साजन के घर।
© ओंकार नाथ त्रिपाठी अशोक नगर बशारतपुर गोरखपुर उप्र।