ख़ता मेरी थी इतनी
के में ख़ुद को समझने के बजाय
ज़माने को समझने में उलझकर रह गया।
ख़ता मेरी थी इतनी
के में ख़ुद को होंसला देने के बजाय
औरों को होंसला देने में उलझकर रह गया।
ख़ता मेरी थी इतनी
के में ख़ुद को आगे बढ़ाने के बजाय
औरों को साथ लेकर बढ़ता गया,अपना समझकर।
ख़ता की है उन्होंने,जो समझ न सके मुझको
और चल पड़े पीठपर हमारे खंजर का वार कर के आगे
बस वो गलती कर गये उलझ गए हम से।
कवि/शायर -क.दि.रेगे